Friday, January 24, 2020

तमाशा

ना बेटी होती ना धरती सजती ना रोशन होती ये बहार!
ना धरती की गोद में यह खेलती ना धरती को देती ये रंग लाल!
जब से ज़मीन बनी है तब से औरत का तमाशा उसी के तन से बनाया जा रहा है। उसी की बनाई और सजाई धरती पर उसी के लिए स्थान नहीं है फिर भी औरत प्यार के स्वर्ग का अहसास लिए ज़मीन को दुलहन बनाती है फिर उसी के अहसास का कोयला बना कर जला दिया जाता है कभी लाश बना कर मातम बना दिया जाता है कभी चिंता की चिता में जला दिया जाता है और कभी समाज के उसूलों के नाम पर , कभी पति की आन के नाम पर , तो कभी पिता की शान के नाम पर!

मैं रागिनी जिस की छाती पर पुरूष के हर रूप ने प्रहार किए। पहले पिता ने भावनाओं के समन्दर को ज़हरीले जानवरों से भर दिया, पुरूष के अंहकार ने जि़न्दा जला दिया पति के रूप में। पुरूष का अंहकार इसलिए पनपता और बढ़ता जाता है क्योंकि सृष्टि के आरम्भ से ही षुरूष को श्रेष्ठता की कसोटी पर सरवप्रथम माना जाता रहा है। गैरजिम्मेदार पिता  की वजह से गरीबी की फटी चादर ने दुनिया के ढके चेहरे को दिखा दिया। पैंतीस वर्ष में भी कोई उम्मीद की किरण न नज़र आती सिर्फ अंधकार का सन्नाटा नज़र आता। इसी सन्नाटे में लोगो ने रोशनी का अंधकार दिया यानी थोड़ा साँसों की आज़ादी जो बची थी पति नाम की सत्ता पर चढ़ गई। पति के घर जाने का रास्ता भी भयानक ही बन गया मेरे लिए। स्कूल की शिक्षिका मित्रों की तरफ से एक रिश्ता माथे का कलंक बन गया। मान और सम्मान की गरिमा से जीने वाली लड़की को अपमान की हवा का अहसास ही भूल गया। शिक्षिका मित्रों की मदद से और एक एन. जी. ओ की मदद से चुपचाप किसी गरूद्वारे में शादी कर ली। यह अपमान का ज़हर माँ समान बड़ी बहन जिसने जीवन को ही भूला दिया था उनकी परवरिश में।न उमर की खबर, न वक्त का ख्याल, न ज़मीन का पता, न आसमान की खबर। बस अच्छी परवरिश और हर सहूलियत से भविष्य को सँवारने की छटपटाहट थी उसके मन में। कोई ऐसा पड़ोसी न होगा, कोई ऐसा राहगिर न होगा, न ही कोई रिश्तेदार जिससे उसने भविष्य सँवारने का पूछा न हो। उमर की ज़मीन खिसकती जा रही थी और पिता की बेतरतीब हरकतों से दिमाग की दुनिया उज़ड़ती जा रही थी अँधेरों का कोहरा तन, मन, बुदिध् की चेतना को ढकता जा रहा था और अचेतना की भूमि पर पाँव भी डगमगाने लगे। ये मृत्यु समान कर्म की छाया न जाने कितने युगों तक इस अपमान की मशाल को जला कर रखेगी यही सोच उसे भयभीत कर रही थी।
उधर रागिनी बसंत ऋतु को मनाने की सोच ही रही थी कि ससुराल पक्ष का सही चेहरा अर्थात् अति गरीबी और लालच की तस्वीर सामने आ गई। हाथों की मेंहदीऔर चूड़े का लाल रंग का चाव भी शुरू ही हुआ था कि रसोई के मसालों की महक भी उसके कपड़ो से आने लगी। गैस की आग ने हाथ को जला नए घर के अत्याचारी और शौक़विहीन हवा ने उम्मीदों का संसार ही जला दिया। फिर एक पश्चाताप की आग, शर्म की लाली, वर्तमान का दिखावा सब मृत्यु तुल्य बन गया। पति परिवार का सहारा बन रागिनी को सहनशीलता का पाठ पढा़ता यानि तनख्वाह का कुछ हिस्सा माँ के पास, कुछ भविष्य का सहारा बना लिया जाता। जायदाद का लालच रागिनी के पति को रागिनी से घर का सारा काम करवाने के लिए कहता। परन्तु रागिनी कहाँ सुनने वाली, तो फिर हर शाम घर की रसोई का काम रागिनी के जिम्मे आया। सुबह का नाश्ता तो दूर तक महक भी नही देता, सास का आठ बजे उठना, रागिनी का जेठ शिखर का नौ बजे उठना , रागिनी का पति शिमर का एक बजे उठना। जी हाँ , लोग न जाने कितने भोजन को अपने शरीर का हिस्सा बना चुके होते हैं। सिर्फ शिमर के साथ जाने की इजाज़त थी वहीं दूसरी और रागिनी अपने घर में आज़ाद पंछी थी। आज आजा़दी भूल चुका था और बीता कल सतरंगीं आकाश से सजा था। मानो आज और कल एक युग बन कर रह गए हों उस के लिए। बीता कल सच का मुखोटा था और आज झूठ का मुखोटा था । आज वह समय था जब बीता कल खज़ाना लग रहा था और आज खोटा सिक्का। शिमर का पिता जो सब्जी बेचता है परन्तु फिर भी घर में सब्जीकी खुशबू कभी -कभार ही सूंघने को मिलती, दालों का स्वाद उस घर की आदत बन गया। वहीं रागिनी का मुँह सब्जी के स्वाद को तरस गया। घर की आजा़दी और खुलापन मन को तरसाता।ऐसे ही घुटन भरी हवा चलती रही कुछ दो साल तक। 
दो साल के बाद एक बेटी का जन्म हुआ, नाम सान्या रखा गया । अस्पताल का कमरा ठीक दस बजे एक बेटी के रोने की आवाज़ आती है। नर्स तौलिया माँगती है पर शिमर के पास कुछ भी नहीं, ससुराल पक्ष का कोई भी नहीं आया। पर रागिनी की माँ और बहन दोनो नन्ही बच्ची को देखने पहुँचे। गीता सब अपमान भूल कर नन्ही बच्ची की परवरिश में लग गई और माँ भी रागिनी की सेवा में। अपरेशन थियटर से कमरे में लाने पर एक कम्बल के लिए रागिनी का कट कर सिला शरीर और ठण्डी साँसें इन्तजा़र कर रही थी। ससुराल पक्ष सिर्फ शब्दों का उच्चारण कर शांत हो जाता है आखिरकार एक कम्बल की गर्माहट उसी परिवार से मिली जिस परिवार से उसे जीवन की चमक मिली थी। अगली सुबह छह् बजे रागिनी पानी माँगती है, गीता सारी रात जागती रही पर फिर भी बहन के प्यार ने नींद उसकी आँखों से कोसो दूर कर रखी थी इसलिए रागिनी का एक शब्द गीता के लिए दिशा का काम कर रहा था। नन्ही बच्ची को बैड पर सोया छोड़ नीचे कंटीन में चाय लेने जाती है उधर शिमर सो रहा है।गीता चाय लेकर वापिस आती है, रागिनी को पहले पानी चम्मच के साथ एक हाथ से पिलाती है और दूसरे हाथ में नन्ही परी को सम्भालती है। फिर चाय और रस लेकर पेट की भूख को राहट देती है। इधर शिमर की नींद नौ बजे खुलती है। अस्पताल में शिमर का छिपा चेहरा दिखने लगता है जब गीता उसे घर से खाना लाने को कहती है और वह डाक्टर के आने का बहाना बना कर बैठा रहता है। यहाँ तक की माँ के फोऩ आने पर केवल दो चम्मच दलिया लाने का फरमान करता है। हालाँकि शिमर की माँ दूध लाने और खाना लाने का भी पूछती है परन्तु शिमर मना कर देताहै। सारा बोझ गीता और उसकी माँ पर पड़ जाता है पर दोनों इसे बोझ न समझ कर जिम्मेदारी समझ कर प्यार से करती हैं। सुसराल पक्ष से एक समय मात्र दो चम्मच कभी दलिया तो कभी खिचड़ी आती शिमर के इशारे पर।उस दिन तो हद हो गई जिस दिन नर्स ने रागिनी के लिए जूस लाने को कहा, शिमर यह कह कर टाल गया कि यहाँ जूस की कोई दुकान नहीं है। गीता सब तमाशा देख भी रही थी और समझ भी पर फिर भी बोल कुछ नहीं रही थी। गीता घर कपडे़ बदलने जाती है तो रास्ते से रागिनी के लिए जूस लेती जाती है। अस्पताल पहुँच कर जूस शिमर को पकड़ाती है। शिमर आधा गिलास भर कर रागिनी को और एक गिलास भर कर अपनी माँ को दे देता है। तब गीता की हैरानी की सारी उम्मीदें टूट जाती हैं क्योंकि शिमर न लाकर देता है और न ही लाय गए जूस को ही उसे पीने देता है चार दिन रात का यह सफर शक, दया, तरस , भेदभाव से भरा रहा वहीं दूसरी और माँ और बहन खुशी, प्यार, ईश्वर की दी गई सुन्दर भेंट को समेटने में लगे रहे। एक बच्ची का जन्म कितने रिश्तों को जोड़ कर लाया था किसे पता था कि धोखे और शक का बीज अभी भी वहाँ पनप रहा था जिससे गीता और उसकी माँ अन्जान थी।
एम. कॉम किया शिमर अपनी माँ को तूँ की सँज्ञा देकर बुलाता है। और पत्नी के हर काम, सलाह को नकारता है यह कहकर कि उसके पास अक्ल कम है।बड़ा भाई काम में वयस्त है इसलिए घर का खर्च और काम उसी के कंधों पर है, शायद यही वजह है कि अविशवास के बरतन की आवाज हर वक्त खनखती रहती है।स्वभाव में चिढ़चिढ़ा पन घर की बदहाली, लालच की पोटली, शक की गर्मी की वजह से है। आचरण में गिरावट लालच का ही हिस्सा बन गया। एक दिन गीता अपनी बहन को घर पर बुलाती है और उसे रूकने के लिए कहती है। दोनों बहनें नन्ही परी का पहला क्रिसमिस मनाने की तैयारी करती हैं इसलिए रागिनी ऊपर अपने कमरे मेंं जाने की इच्छा बतलाती है। परन्तु शिमर यह कह कर टाल देता है कि ऊपर सर्दी ज़्यादा है, सान्या बीमार हो जाएगी। शिमर से हर काम पूछ कर करना या शिमर का हर काम पर बहाने से इन्कार करना उसे पल-पल अहसास दिलाता है कि वह किसी बेगाने परिवार में आई है या पुरूष का पौरुष  अपनी राय को उत्तम मानना है या अपनी सम्पत्ति पर आधिकार जमाना। शहद से जीवन की जगह नीम से भी कड़वा जीवन जीने की अनचाही चाहत ने रागिनी को मन मार कर जीने के लिए मजबूर किया। 
एक दिन कमरे में रागिनी अपनी बेटी को गोद में लिए बैठी हुई थी कि अचानक उस की आखेँ आसुँओं से भर गई, आँख का एक आसूँ नन्ही बिटिया की आखँ पर गिर जाता है। दो महीने की नन्ही बिटिया के मुस्कुराते चेहरे पर उदासी का मंज़र साफ दिखने लगता है। रागिनी बच्ची के चेहरे की उदासी को देख हैरान रह जाती है कि क्या नन्ही बच्ची की आत्मा काम करती है? आज का पढ़ा लिखा,इतनी बड़ी देह का मालिक मनुष्य क्यों नहीं?
अगर आत्मा काम करती है तो शब्दों का क्या मूल्य? मौन वाणी सक्षम है फिर नियंत्रक शासकों के लिए। 
सोई हुई आत्मा से देख रहा परमात्मा है,
राह का साथी ही बना हुआ मुसाफिर,
ज़मीन पर कंकाल हुई आत्मा,
सोई हुई आत्मा से देख रहा परमात्मा।